7.राजा त्रिशंकु हरिश्चंद्र की कथा

हरिश्चंद्र को अपनी पत्नी के साथ सत्य में दृढ़ता पूर्वक स्थित देखकर विश्वामित्र जी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे उसज्ञान का उपदेश किया, जिसका कभी नाश नहीं होता।24

उसके अनुसार राजा हरिश्चंद्र ने अपने मन को पृथ्वी में ,पृथ्वी को जल में,जल को तेज में, तेज को वायु में और वायु को आकाशमें स्थिरकरके,आकाश को अह्नकार में लीन कर दिया।25

फिर अहंकार को महतत्व में लीन करके उसमें ज्ञान कला का ध्यान किया और उससे अज्ञान को भस्म कर दिया।26

इसके बाद निर्माण सुख की अनुभूति से उस ज्ञान कला का भी परित्याग कर दिया और समस्त बंधनों से मुक्त होकर वे अपने उस स्वरूप में स्थित हो गए जो न तो किसी प्रकार बताया जा सकता है और ना उसके संबंध में किसी प्रकार का अनुमान ही किया जा सकता है।27

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